दिल्ली में जो लोग खानें के शौकिन हैं उनके लिए ये नाम नया नहीं है.. वैसे ये नाम उन लोगों के लिए भी नया नहीं है जो लोग अक्सर दिल्ली के Connaught Place की सड़कों पर घुमा करते हैं चाहे काम से या फिर बिना काम के, अब क्या किया जाए कम्बख्त अंग्रेज़ों ने इतनी खूबसूरत जगह ही बनाई है की दिल्ली वालें क्नॉट प्लेस का चक्कर लगा ही लेते हैं.. फिर चाहे वो चक्कर सेंट्रल पार्क का हो,इनर सर्कल का या फिर आउटर सर्कल का... हर जगह, हर दुकानें, फैशन हाउसेस, चौड़ी सड़कें सब के सब आपको रॉयल फील करवाते हैं... बस उसी रॉयल प्लेस के आउटर सर्कल में काके दा ढ़ाबा करके एक बेहद छोटी दुकान है वैसे आप उसी फूड आउटलेट भी बोल सकते हैं या फिर एक छोटा मगर मशहूर रेस्तरांत...
आज में आपको इसी बेहद पुरानी दुकान से जुड़ा अपना एक इक्सपीरिएंस शेयर करुंगी... आपको बता दूं की मैं दिल्ली में ही पली बड़ी हूं वैसे तो में रूट्स यू पी के आज़मगढ़ की हैं लेकिन मेरी फैमिली बहुत अरसे पहले ही दिल्ली में आकर सेटेल हो गई थी... मेरे पिताजी पेशे से गवर्मेंट इम्लॉए हैं इसलिए दिल्ली पहले उनकी प्रोफेशनल जगह बनी और बाद में मेरी... बचपन से ही हज़ारों बार कनॉट प्लेस आना जाना रहा है... हज़ारों बार बसों,ऑटो से आउटर सर्कल पर एक लाईन से बनी कई छोटी छोटी दुकनों को देखा जिसमें से एक काके-दा-ढ़ाब भी रहा है, लेकिन कभी उसके अंदर जाने का मौका नहीं मिला..दरसल डैडी-मम्मी शुरु से ही फाइन डाइनिंग डेबल को पसंद करते आए हैं तो ऐसे में उन्होनें मेरी बचपन में ढ़ाबे में डाने की इच्छा को कभी अपनी इच्छा से मंज़ूरी नहीं दी... खैर मेरे बचपन की बात को आगे ना खीचते हुए मेरे इक्पसपिरिएंस की बात को आगे बढ़ाती हूं नहीं तो आप सोचेगें की मैंने बात शुुरु की खाने की दुकान से और आगई अपने बचपन के दिन को याद करती हुई... दरसल बचपन और काके दा ढ़ाबे से सिर्फ देखा देखी का लिंग है..देखा देखी मतलब बाहर से रास्ते से गुज़रते हुए सिर्फ ढ़ाबे को देखना उसके अंदर जाना और कुछ स्वादिस्ट खाने का मौका ही नहीं मिला... कनेक्शन हुआ अब जाकर जी हां कुछ दिनों पहले ही...
एक काम से मैं और मेरे पति किसी काम से दिल्ली गई थे.... हज़ार बार अपने हस्बैंड के मुंह से सुन रखा खा की काके दा ढ़ाबा के खाने के बात ही कुछ और है...खासकरके उसके मटन करी और चिकन बिरयानी की...इतनी तारीफें सुना करती थी की अगर मेरी जगह कोई वेजीटेरियर भी होता ना तो उसके मुंह में पानी आए बगैर नहीं रह सकता था... तो मैं तो थी ही प्योर नॉनवेजीटेरियन... क्या था जी इतनी तारीफ सुनसुनकर मुंह से तो क्या कानों से भी पानी आने लगा था... हा हा हा...अजी जब जुबां पर स्वाद याद आते ही मुंह से पानी आने लगना मुहावरा हो सकता है तो बार बार लज़ीज़ खाने की तारीफ सुनकर सुनकर कानों से पानी क्यों नहीं आ सकता... बस मेरा भी वही हाल था... दिल्ली से वापस आते वक्त रास्ते में प्लॉन बन रहा था की घर चलकर क्या पकाना है, पकाना है या आजकल के आधुनिकरण हुए खाना आपको घरतक पहुंचाने वाली ज़ोमेटो,नियर बाय या फूडफांडा के ज़रीए खाना डायरेक्ट घर की खाने की प्लेट तक मंगाना है...अचानक से हस्बैंड जी को क्या सूझ़ा ड्राइवर को गाड़ी कनॉट प्लेस की तरफ लेने को बोल दिया,ड्राइवर ने भी झट से गाड़ी मोड़ी और चल दिए ट्रैफिक में फंसते फंसाते कनॉट प्लेस के काके दा ढ़ाबा की ओर...उधर भारी भरकम ट्रैफिक में ड्राइवर गाड़ी को दौड़ाने की जोड़-तोड़ में लगा हुआ था...दूसरी तरफ पतिदेव के मुंह से बार बार मटन कोरमा और चिकन बिरयानी के स्वाद के बारे में सुनकर सुनकर दिल,दिमाग, पेट,मुंह सबके सब बस उसे जल्द से जल्द खाने के सपने सजो रहे थे, मगर देर शाम और सुबह दिल्ली के ट्रैफिक के बारे में भला कौन नहीं जानता...दुनियां इधर की उधर हो जाए मगर ट्रैफिक जाम में कोई कमी नहीं आसकती...सरकार ने बड़े बड़े फ्लाईऑवर बनवा दिए, अंडरपास बना दिए हैं मगर जाम कभी ना खत्म होने वाली कैंसर जैसी लाइलाज बिमारी..कैंसर भी फस्ट और सेकेंड स्टेज में ठीक किया जा सकता है मगर इस ट्रैफिक नाम की बिमारी का कोई ईलाज नहीं...उधर ट्रैफिक जाम बढ़ता जा रहा था और इधर मैं भूख से मरे जा रही थी और भूख से कम सच कहेंतो काके-दा-ढ़ाबे के मटन कोरमे की खूशबू जो बचपन से उसके सामने से निकने पर नाक में तो आती थी मगर अफसोस फाइन डाइनिंग ना होने की वजह से जुंबान से होते हुए पेट तक ना पहुंच पाती थी..बस वही भूख और कोरमें और बिरयानी के सपनों ने पेट के चूहे कब्ड्डी खेल रहे थे..खैर जैसे तैसे ड्राइवर ने आढ़ी तिरछी गाड़ी कर धूम फिल्म की तरह हमे काके दा ढ़ाबा के आगे लाकर गाड़ी पार्क कर दी... देखा तो उस छोटी सी दुकान के आगे बहुत बड़ी बड़ी गाडियां लगी हुईं थीं..पतिदेव बोले बहुत लम्बी लाइन है तुम गाड़ी में रुको मैं खाना ऑडर करके आता हूं या फिर पैक करवाकर घर ले चलते हैं...जैसे जैसे पतिदेव अपने लम्बे लम्बे कदम उस काके-दा-ढ़ाबे की तरफ बढ़ा रहे थे वैसे वैसे मेरे मुंह में पानी की मात्रा बढ़ती जा रही थी अगर कोई माप का पैमाना होता तो कम से कम वो आधा लिटर पानी तो मेजर ही कर लेता,हा हा हा... anyway तकरीबन आधे-पौने घंटे के बाद गाड़ी का दरवाज़ा खुला और हमारे मिस्टर जी कई सारे पैकेट्स के साथ काम में बैठ गए...उन पैकेट्स की खूशबू के बारे में क्या जिक्र करु मेरे पास वो शब्द नहीं है जो उस पैकेट्स से आती खूशबू को शब्दों में बयां कर पाएं...मानो कोरमा पैकेट में नहीं टेबल पर रखे प्लेट में बिल्कुल सामने सजा रखा हो, बिरयानी के पैकेटक्स से आती खूशबू का भी यही हाल था....
मतलब यूं समझिए की उस लाज़वाब और taste खाने की सिर्फ खूशबू से ही मैं दिनभर की अपनी थकान और ट्रैफिक में फंसे रहने से जो परेशानी हुई थी एक पल में भूल गई, याद रहा तो सिर्फ मटन कोरमा,चिकन बिरयानी और जल्द से जल्द घर पहुंचने की बात वो भी सिर्फ इसलिए की घर पहुंचते ही पैकेट की खूशबू स्वाद बन मुंह में जाएगा और मेरे दिल,दिमाग,फेफड़ों के साथ साथ मुंह को भी तृप्ति मिले... DND cross करते ही ट्रैफिक की problem खत्म और नोएडा एक्सप्रैस पर आते ही मानों गाड़ी और ड्राईवर दोनों में किसी ने एक दम से Red Bull energy drink डाल दिया हो ,तेज और सर्पट दौड़ती गाड़ी की रफ्तार की वजह से हम घर पहुंचे...घर में आते ही फटाफट पतिदेव ने पैकेट खोला और माइक्रोवेव में लज़ीज़दार खाना गर्म करने को रखा दिया और इधर मैं फ्रैश-एन-अप होने के लिए washroom में चली गई, चली तो कई मगर पैकेट की खूशबू बार बार बचपन से लेकर अबतक काके-दा-ढ़ाबा में ना जा पाना और उसका ज़ायकेदार खाना ना खा पाने की ललक और बढ़ा रही थी...डाइनिंग टेबल पर एक एक सर्विंग डिश में मटन कोरमा सजा पड़ा था तो दूसरे सर्विंग डिश सजी हुई थी चिकन बिरयानी से, अपनी तो आंखें बस इन्ही दो डिशों पर जा कर अटक गईं तो बाकी सजा डाइनिंग टेबल पर कोई ध्यान ही नहीं गया इसलिए और डिशिज़ का नाम इस पोस्ट पर लिख नहीं पा रही हूं, anyway चलिए अब आगे की दास्ता-ए-डिश बयां करती हूं जिसे पढ़कर आप यकीनन मेरे हालात या फिर कहूं भूखे पेट की कहानी पर एक मज़दार तरस खाएंगे, अरे भई मज़ेदार तरस की मतलब है की आपको मेरी भूख पर हंसी भी आएगी... तो हुआ कुछ यूं की खाना प्लेट में सजाया और मुंह में ज़ायकेदार,बेहद हसीन और स्वादिस्ट सपनों को देखते हुए पहली बाईट मुंह में ली..जुंबा अचानक से रुकी, आंखों ने एक अजीब सा रिएक्शन दिया और दिमाग के इंजन ने तो ब्रेक लिया और बिना रुके मैने अपने मिस्टर जी से सवाल किया ये..ये क्या है...
बगल में बैठे मिस्टर जी बोले क्या हुआ, मैने कहा जो हुआ वो बाद में बदाउंगी पहले ये बताओं की ये है क्या, मिस्टर जी बोले क्या है का क्या मतलब कोरमा है,बियानी है,रुमाली रोटी है रायता है और क्या है..कोरमे का स्वाद ऐसा कबसे हो गया,मतलब अजीब सा स्वाद और वो भी मीठा...मिस्टर जी चुप रहे और कुछ नहीं बोले..मैंने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा की मुझे तो लग रहा है की आप काके-दा-ढ़ाबे से कोरमे की जगह गुजराती थाली पैक करवा कर लाए हैं... क्या ये ही है काके-दे-ढ़ाबे का जायकेदार स्वाद... इसी स्वाद की तारीफ बचपन से सुनती आ रही हूं और इसी स्वादिस्ट और अजीब खाने की खूशबू भी नाक से होते हुए मुंह मे जाती रही और मेरा मन ललचाता रहा...उस वक्त तो मानो रास्ते भर देखते हुए सपनों के साथ किसी ने बहुत बड़ा धोखा कर उसे तोड़ दिया हो...दिमागा का इंजन तो पहले ही बंद हो चुका था अबतक मुंह के पानी ने भी अपनी जगह छोड़ दी और वापस पेट में जाकर भूखको खत्म कर चुका है, समझ नहीं आ रहा था की मेरी जुंबा के स्वाद और मुंह में आने पानी के सपनों के साथ किसने धोखा किया है उस ढ़ाबे वाले ने या उन तमाम लोगों ने जिन्होनें बचपन से लेकर उम्र के इस पड़ाव तक मुझे ये कह कहकर हर बार ऑक्ववर्ड फील करवाया की मानों मैंने ज़िंदगी में कुछ हासिल ही नहीं किया है क्योंकी मैं जाने-माने मशहूर काक-दा-ढ़ाबे के लाजबाव स्वाद से वंचित रह गई हूं...दिमाग और जुंबा कुछ ना कुछ बड़बडाए जा रही थी..की तभी अचानक मेरे कानों को कुछ ऐसा सुनाई दिया जिसे सुनकर कान एक सेकेंड के लिए सुन और जुंबा शब्दहीन हो गई..बताती हूं बताती हूं जानती हूं मैं की अब तो आपभी मेरे उस पल और बात को जानने के लिए ओवरएक्साइटेड हो रहे होंगे और हो भी क्यों ना अब सपनों और स्वाद की इतनी सारी बाते सुनकर जो मज़ा आ रहा होगा उसमें उस एक पल ने ब्रेक जो लगा दिया होगा...तो चलिए बताती हूं बात थी की मेरे मिस्टर जी ने धीरे ने सिर अपनी प्लेट की तरफ झुकाते हुए तबी हुई जुंबा से कहा की वो दरसल एक छोटी सी मिस्टेक हो गई, मैं कहा क्या हुआ बोलो,तो जनाब धीरे बोल रहे हैं की दरसल खाने का पैकेट खोलते वक्त माफ कीजिएगा पूरी बात पढ़िए की मटन कोरमे और बिरयानी के साथ मिली ग्रैवी का पैकेट खोलते वक्त उन्हें दोनों में कोई ज्यादा फर्क दिखा नहीं और खाने का ज़ायका और बढ़ाने के लिए उन्होनें उन दोनों ग्रैवी को एक में मिक्स कर दिया और सर्विंग डिश में फाइन डाइनिंग टेबल पर सामने पेश कर दिया और उसी की वजह से स्वाद के साथ कुछ अजीब हो गया...अब आप सोच ही सकते हैं की उस वक्त मुझे कैसा लग रहा होगा, मेरे तन-मन में कैसी हलचल हो रही होगी...ठीक वैसी ही जैसे हर पति की गलतियों पर पत्नी के अंदर कुछ अजबो-गरीब गुस्सा या फिर कहें फीलिंग होती है,मैरे साथ भी ठीक वैसी ही गतिविधियां और ज्वालामुखी वाली तरंगे उठ रही थीं... लेकिन अब क्या किया जा सकता है गुस्से को दिल में ही खत्म करने के अलावा कोई और चारा भी तो नहीं था क्योंकी मिस्टर जी ने जो अंजाने में किया वो गलती तो मुझसे भी हो सकती थी...
एक तो अच्छे पति की तरफ वो फ्रैश हुए बिना मेरी एक्साइटमेंट और भूख दोनों का ख्याल रखते हुए वो सीधे किचन की तरफ गए ताकी मेरे वापस आने पर मुझे सजी सजाई प्लेट मिल सके और मैं उनके साथ बेरुखी से पेश आउ सो मैने हल्की सी मुस्कुराहट अपने होंठों पर सजाई और कहा कोई बात नहीं जानी it's ok jaani... कोई नहीं जो हुआ सो हुआ आपने कौन सा जानकर मेरे स्वादभरे रंग में बेस्वाद का भंग डाला..फिर क्या था फटाफट अपनी 2 मिनट वाली मसालेदार मैगी बनाई मिस्टर जी को भी खिलाई और खुद भी खाई..अब ये मत पूछिएगा की कैसी बनी थी क्योंकी मैगी जो स्कूल के टिफीन से लेकर कॉलेज के कैंटीन और उसके बाद ऑफिस से लेट आने वालों के लिए दुनिया की सबसे बेहतरीन डिश होती है और यहां तो मामला भूख का भी था तो जाहिर सी बात है स्वाद तो मेज़ेदार रही रहा होगा...end's well so all well ...मगर सोते सोते भी खुद पर सिर्फ एक ही मज़ेदार कहावत सटीक बैठी हुई थी...अरे भई वही तो मेरे इस पहली पोस्ट का टाइटल है...हाथ आया पर मुंह ना लगा...हा हा हा हा... आपके साथ भी कभी ना कभी ऐसा ज़रुर हुआ होगा...अरे स्वाद में बेस्वादी का भंग का नहीं पड़ाना बल्कि कुछ ऐसा जिसे पाने के सपने तो आपने कई बार देखे होंगे पर जब सामने आया तो या तो आप लेने लायक नहीं रहे होंगे या फिर चाहकर भी ले नहीं पाएं होंगे... हा हा हा हा हा...
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