बुधवार, 10 जून 2009

आख़िर कब तक......

''वसुधेव कुटुम्बकम'' आज के युग में शायद इसका मतलब कुछ बदल सा गया है, या फिर यूं कहें की कुछ नहीं बल्कि ये वाक्य अब पूरी तरह से अर्थहीन हो चुका है, जिसका जीता-जागता उदाहरण है आस्ट्रेलिया में भारतीय छात्रों पर होने वाले हमले । हमलों का संदेश साफ है-- हम गोरे तुम कालों को बर्दाश्त नही करेंगे , तुम यहां से चले जाओ , आजकल यही ज़ुबां हर गोरा बोल रहा है चाहे वो क्रिकेट की पिच पर व्वॉइट बॉल देने वाला कोई खिलाड़ी हो या फिर आम गोरा विदेशी नागरिक । मतलब साफ है नस्लभेद की भावना को दिलों में जिंदा करने का , तभी तो विदेश में हर चौथे भारतीय को you bloody indian के शब्दों से पुकारकर उसे नवाज़ा जाता है, आप बेशक नवाज़ा शब्द से इत्तेफाक ना रखते हों लेकिन मैं तो इसे नवाज़ना ही कहूंगी, क्योंकि हमारे देश से जब भी कोई बाहर जाता है तो उसके चेहरे पर एक अलग सी चमक होती है , उसकी बातों में अलग सा फ़ख्र होता है हां वो अलग बात है की उसका दिल ये साफतौर पर जानता है की अगले ही पल उसके साथ वहां क्या होने वाला है, पर इससे क्या हाथ में विदेशी डिग्री तो होगी, जेब में कुछ डॉलर तो खनखनायेंगे , लायक बेटा NRI को कहलायेगा, पर शायद वो लोग ये सब भूल जाते हैं की अगर दूसरे का 56 भोग भी तिरस्कार से मिले तो वो ज़हर समान ही होता है, पर हम भारतीयों को इससे कोई ख़ास फर्क नही पड़ता, हमें तो स्वादिष्ट भोग से मतलब है चाहे वो किसी भी तरह से हमारे और आपके सामने परोसा जाए । लगभग 100 सालों से ज्यादा अंग्रेजों की गुलामी करते हम शायद अब तक थके नहीं हैं तभी तो विदेशी एम्बेसी के सामने सवेरे-सवेरे वीज़ा के लिये लम्बी कतार लगा लेते हैं और उसका नाम रखते हैं ग्लोब्लाइजेशन । समझ में नही आता इस शब्द का अर्थ हम भारतीयों को ही ज़्यादा समझ में क्यों आता है, क्या गोरे विदेशियों को इसकी ज़रुरत नही या फिर ये अलफ़ाज़ ही उनके शब्दकोष से बाहर का है । वैसे ये ग्लोबल शब्द हम पर कई बार भारी पड़ चुका है और वो भी अलग अलग पहलुओं से । मिसाल के तौर पर हमारी हिंदी फिल्में , इसने अपनी सफलता के झंडे देश से लेकर विदेशो में गाड़ दिये है इतना ही नही हमारी सिनेमा इंडस्ट्री आज इतनी ग्लोबल हो चुकी हैं की इसने इस्माइल पिंकी की मुस्कुराहट से लेकर हिंदुस्तान की ख़ामियों को बयां करने वाली स्लमडॉग को ऑस्कर से नवाज़े जाने को सिनेमा का ग्लोब्लाइज़ेशन कहलवा डाला, लेकिन मुझे ये समझ में नही आता की आखिरकार ये शब्द ऑस्कर रेस के लिये दौड़ रही लगान और रंग दे बसंती के वक्त कहां गायब हो गये थे , क्योंकी उस वक्त विदेशी लोगों का कहना था की अभी तक भारतीय फिल्मों का स्टेंडर्ड नही बन पाया है , जी हां सही फरमाया हमारा ऐसा स्टेंडर्ड नही है और ना ही कभी बन पायेगा , क्योंकि हमें दूसरों की गलतियों पर हंसकर तालियां बटौरना नही आता और ना ही हम कभी किसी की कमियों पर वाहवाही लूट सकते हैं । , खैर गैरों से क्या शिकवा करना , जब अपने ही धोखा दें । विदेशी हमारी कमियां दिखायें हम मुस्कुरायें, वो हम पर हमलें करें, हम संयम रखें, जी हां सही बोल रही हूं... उनकी ही नही हमारी खुद की सरकार का यही कहना है । सच भी है हमें खुद पर संयम रखना ही होगा आखिरकार हम भारतीय जो ठहरें ,लेकिन ये संयम हमलों के प्रति आवाज़ उठाने का नही बल्कि विदेशों में खुद को जाने से रोकने पर संयम रखना होगा, यहां के बजाये वहां की चीज़ो को तवज्ज़ो देने पर संयम रखना होगा । रुपये के बजाये विदेश जाकर डॉलर को मज़बूत करने पर संयम रखना होगा , देश की उच्च शिक्षा के बजायें विदेशी डिग्री लाने पर संयम रखना होगा, और इस संयम से हमें तिरस्कार की बजाए 2 चीज़े मिलेंगी पहला आत्म सम्मान और दूसरा देश की तरक्की । जिससे भारत को विश्वशक्ति बनने में अपार मदद मिलेगी और तब शायद ग्लोब्ल शब्द के मायने उनके अनुसार नही बल्कि उसके सही अर्थो में ढ़ालकर उसे सर्वोपरी बना सकें
रुचि राय ...

9 टिप्‍पणियां:

  1. सोचिये अगर आस्ट्रेलिया में भारतीयों की संख्या ठीक ठाक न होती तो क्या हाल होता
    आवाज उठाने के पहले ही दबा दी जाती
    वीनस केसरी

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  2. ब्लॉग जगत में आपका स्वागत है। ग्लोबल विश्व की अवधारणा पूरी तरह से जम भी नहीं पाई कि इसे खत्म करने वाले दुश्मन पैदा हो गए। जनसंख्या बढ़ने और बेरोजगारी बढ़ने के साथ लोगों की मानसिकता और संकीर्ण होती जा रही है।

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  3. रुची जी हां गोरे लोगों को भी ग्लोबलाइजेशन का मतलब समझ में आता है जभी तो अब ऑस्ट्रेलिया में सरकार सख्त कदम उठाने के लिए मजबूर है। यदि हमारे देश से लोग वहां पढ़ने नहीं जाएं तो समझो कि ऑस्ट्रेलिया के नौनिहालों को अपनी-अपनी नानी याद आजाएगी।

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  4. समसामयिक आलेख एवं चिन्तन, अच्छी प्रस्तुति।

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    www.manoramsuman.blogspot.com
    shyamalsuman@gmail.com

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  5. सही मायनों में ये आलेख बहुत ही जबरदस्त लिखा है और मेरी सोच के अनुरूप लिखा है.....अगर मैं अपने भाव को शब्दो में उकेरता तो शायद इतने अच्छे तरीके से इसे नहीं लिख पाता जितना अच्छा आपने लिखा है रूची जी.... आपके लेख को देखकर कर लगता है कि आप शायद किसी कॉलेज में अध्यापिका हैं या फिर कोई विचारक , खैर छोड़ये आप जो भी काम करती हैं पर मैं तो ये कहूंगा कि आप लिखती बड़ा अच्छा हैं.... आपको इस शानदार लेख के लिए बहुत बहुत धन्यवाद..

    आपका हितैषी और मित्र बनने का इक्छुक
    जयदीप शुक्ला

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  6. सही सवाल उठाये हैं आपने. सटीक और उचित !

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  7. bahut hi accha likhti hai aap mauhtarma.
    aap ke lekh mainjosh aur ravangi dekh kar veerangnao ki yaad aa gayi..
    vicharo ko aapne behad khoobsurat tarike se prastut kiya hai.
    apne vicharo se yuhi avgat karati rahe . ab main apni lekhni ko viram deta hu
    jai hind

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  8. likha to achha hai..lekin kuchh galat logon ki sankirn mansikta ki wajah se hum globalisation ki dharna ko galat nahi keh sakte...achha to yehi hota ki abroad jane ke liye
    visa ki zarurat hi na pade..waise dekha jai to hamare desh me bhi log kehte hain...ki bhaiya log kaha kaha se aakaar maharashtra me bas jate hain..to kya phir india bhi chdod de...ya main mumbai chhod ke bihar jaun...iska matlab yeh nahi ki mumbai bura hai..kuchh log galat hain...mumbai ka koi kusur nahi..agar waha ki sarkar support nahi karti to kya ek bhi indian australia me reh pata..bahar ke desh bahut achhe hain..waha ke rules..safai...soch hamare desh se jyada achhi hai...zarurat hai kuchh logo ki soch badalne ki na ki videsh jana hi chhod de..puri duniya ek hai dost..pehle hame apne desh ki galat chizo ko badalna chahiye...india me kaun kiske liye sochta hai...kya yeha par dharm ke nam pe..sorry dharm to dur ki bat hai cast ke nam par batwara nahi hai...sorry yeh comment aapke lekh ko support nahi karta..yeh aapka mat ho sakta hai par yeh sabse behtar soch nahi hai..

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