गुरुवार, 9 जुलाई 2009

ज़रा पर्दे हटा कर देखो...


ये घर है दर्द का घर, पर्दे हटा के देखो,
ग़म हैं हंसी के अंदर, पर्दे हटा के देखो।
लहरों के झाग ही तो, पर्दे बने हुए हैं,
गहरा बहुत समंदर, पर्दे हटा के देखो।
चिड़ियों का चहचहाना, पत्तों का सरसराना,
सुनने की चीज़ हैं पर, पर्दे हटा के देखो।
नभ में उषा की रंगत, सूरज का मुस्कुराना
ये ख़ुशगवार मंज़र, पर्दे हटा के देखो।
अपराध और सियासत का इस भरी सभा में,
होता हुआ स्वयंवर, पर्दे हटा के देखो।
इस ओर है धुआं सा, उस ओर है कुहासा,
किरणों की डोर बनकर, पर्दे हटा के देखो।
ये रुचि ने माना हैं, ख़ामियां सभी में हैं,
कुछ तो मिलेगा बेहतर, पर्दे हटा के देखो।

4 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत आशावादी कविता है , ऐसे ही लिखती रहें

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  2. रूची जी बहुत अच्छा लिखती हैं आप...मै तो बस फैन हो गया आपका.... बस इतना ही कहूंगा..हमेशा ऐसे ही लिखती रहिये...

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