सोमवार, 1 जुलाई 2019
“ख़बर” जिसके कोई मायने नहीं
लगता है हमारा देश अपनी तमाम परेशानियों से बाहर आ चुका है! देश के अंदर कोई समस्या नहीं बची तभी तो कोई एक अदाकारा अपने काम को करने या ना करने की बात करती है और उस पर तमाम मीडिया, मौलवी, संत, विचारक अपनी अपनी प्रतिक्रिया रखने लगते हैं, चैनलों को दिनभर की अपनी खुराक मिल जाती है, चैनलों पर आए पैनेलिस्टों को चेहरा चमकानें और सुर्खियों में रहने का मौक़ा और तमाम ख़ाली बैठे लोंगो को विचारक बनने का मौक़ा.. अजी ज़ायरा काम करने या ना करे उससे देश की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ेगा ना ही उससे आपकी और मेरी पॉकेट पर कोई असर होने वाला है... कोई अपने धर्म का हवाला देकर अपनी निजी ज़िदगी का फ़ैसल ले उससे आपका या मेरा कोई सरोकार नहीं होना चाहिए जब तक उससे देश, समाज की आंतरिक चीज़ों पर उसका असर ना पड़े, तो मेरी आपसे ये गुज़ारिश है की आप इस तरह के उलजलुल चीज़ों पर ध्यान देकर इसे बेवजह की इम्पॉर्ट्ंस ना दें। देश में ऐसी कई भयावह समस्याएँ हैं जिन्हें आपकी और मेरी ध्यान की आवश्यकता है... जय हिंद
शुक्रवार, 24 अगस्त 2018
"हाथ आया पर मुंह ना लगा"
आज में आपको इसी बेहद पुरानी दुकान से जुड़ा अपना एक इक्सपीरिएंस शेयर करुंगी... आपको बता दूं की मैं दिल्ली में ही पली बड़ी हूं वैसे तो में रूट्स यू पी के आज़मगढ़ की हैं लेकिन मेरी फैमिली बहुत अरसे पहले ही दिल्ली में आकर सेटेल हो गई थी... मेरे पिताजी पेशे से गवर्मेंट इम्लॉए हैं इसलिए दिल्ली पहले उनकी प्रोफेशनल जगह बनी और बाद में मेरी... बचपन से ही हज़ारों बार कनॉट प्लेस आना जाना रहा है... हज़ारों बार बसों,ऑटो से आउटर सर्कल पर एक लाईन से बनी कई छोटी छोटी दुकनों को देखा जिसमें से एक काके-दा-ढ़ाब भी रहा है, लेकिन कभी उसके अंदर जाने का मौका नहीं मिला..दरसल डैडी-मम्मी शुरु से ही फाइन डाइनिंग डेबल को पसंद करते आए हैं तो ऐसे में उन्होनें मेरी बचपन में ढ़ाबे में डाने की इच्छा को कभी अपनी इच्छा से मंज़ूरी नहीं दी... खैर मेरे बचपन की बात को आगे ना खीचते हुए मेरे इक्पसपिरिएंस की बात को आगे बढ़ाती हूं नहीं तो आप सोचेगें की मैंने बात शुुरु की खाने की दुकान से और आगई अपने बचपन के दिन को याद करती हुई... दरसल बचपन और काके दा ढ़ाबे से सिर्फ देखा देखी का लिंग है..देखा देखी मतलब बाहर से रास्ते से गुज़रते हुए सिर्फ ढ़ाबे को देखना उसके अंदर जाना और कुछ स्वादिस्ट खाने का मौका ही नहीं मिला... कनेक्शन हुआ अब जाकर जी हां कुछ दिनों पहले ही...
एक काम से मैं और मेरे पति किसी काम से दिल्ली गई थे.... हज़ार बार अपने हस्बैंड के मुंह से सुन रखा खा की काके दा ढ़ाबा के खाने के बात ही कुछ और है...खासकरके उसके मटन करी और चिकन बिरयानी की...इतनी तारीफें सुना करती थी की अगर मेरी जगह कोई वेजीटेरियर भी होता ना तो उसके मुंह में पानी आए बगैर नहीं रह सकता था... तो मैं तो थी ही प्योर नॉनवेजीटेरियन... क्या था जी इतनी तारीफ सुनसुनकर मुंह से तो क्या कानों से भी पानी आने लगा था... हा हा हा...अजी जब जुबां पर स्वाद याद आते ही मुंह से पानी आने लगना मुहावरा हो सकता है तो बार बार लज़ीज़ खाने की तारीफ सुनकर सुनकर कानों से पानी क्यों नहीं आ सकता... बस मेरा भी वही हाल था... दिल्ली से वापस आते वक्त रास्ते में प्लॉन बन रहा था की घर चलकर क्या पकाना है, पकाना है या आजकल के आधुनिकरण हुए खाना आपको घरतक पहुंचाने वाली ज़ोमेटो,नियर बाय या फूडफांडा के ज़रीए खाना डायरेक्ट घर की खाने की प्लेट तक मंगाना है...अचानक से हस्बैंड जी को क्या सूझ़ा ड्राइवर को गाड़ी कनॉट प्लेस की तरफ लेने को बोल दिया,ड्राइवर ने भी झट से गाड़ी मोड़ी और चल दिए ट्रैफिक में फंसते फंसाते कनॉट प्लेस के काके दा ढ़ाबा की ओर...उधर भारी भरकम ट्रैफिक में ड्राइवर गाड़ी को दौड़ाने की जोड़-तोड़ में लगा हुआ था...दूसरी तरफ पतिदेव के मुंह से बार बार मटन कोरमा और चिकन बिरयानी के स्वाद के बारे में सुनकर सुनकर दिल,दिमाग, पेट,मुंह सबके सब बस उसे जल्द से जल्द खाने के सपने सजो रहे थे, मगर देर शाम और सुबह दिल्ली के ट्रैफिक के बारे में भला कौन नहीं जानता...दुनियां इधर की उधर हो जाए मगर ट्रैफिक जाम में कोई कमी नहीं आसकती...सरकार ने बड़े बड़े फ्लाईऑवर बनवा दिए, अंडरपास बना दिए हैं मगर जाम कभी ना खत्म होने वाली कैंसर जैसी लाइलाज बिमारी..कैंसर भी फस्ट और सेकेंड स्टेज में ठीक किया जा सकता है मगर इस ट्रैफिक नाम की बिमारी का कोई ईलाज नहीं...उधर ट्रैफिक जाम बढ़ता जा रहा था और इधर मैं भूख से मरे जा रही थी और भूख से कम सच कहेंतो काके-दा-ढ़ाबे के मटन कोरमे की खूशबू जो बचपन से उसके सामने से निकने पर नाक में तो आती थी मगर अफसोस फाइन डाइनिंग ना होने की वजह से जुंबान से होते हुए पेट तक ना पहुंच पाती थी..बस वही भूख और कोरमें और बिरयानी के सपनों ने पेट के चूहे कब्ड्डी खेल रहे थे..खैर जैसे तैसे ड्राइवर ने आढ़ी तिरछी गाड़ी कर धूम फिल्म की तरह हमे काके दा ढ़ाबा के आगे लाकर गाड़ी पार्क कर दी... देखा तो उस छोटी सी दुकान के आगे बहुत बड़ी बड़ी गाडियां लगी हुईं थीं..पतिदेव बोले बहुत लम्बी लाइन है तुम गाड़ी में रुको मैं खाना ऑडर करके आता हूं या फिर पैक करवाकर घर ले चलते हैं...जैसे जैसे पतिदेव अपने लम्बे लम्बे कदम उस काके-दा-ढ़ाबे की तरफ बढ़ा रहे थे वैसे वैसे मेरे मुंह में पानी की मात्रा बढ़ती जा रही थी अगर कोई माप का पैमाना होता तो कम से कम वो आधा लिटर पानी तो मेजर ही कर लेता,हा हा हा... anyway तकरीबन आधे-पौने घंटे के बाद गाड़ी का दरवाज़ा खुला और हमारे मिस्टर जी कई सारे पैकेट्स के साथ काम में बैठ गए...उन पैकेट्स की खूशबू के बारे में क्या जिक्र करु मेरे पास वो शब्द नहीं है जो उस पैकेट्स से आती खूशबू को शब्दों में बयां कर पाएं...मानो कोरमा पैकेट में नहीं टेबल पर रखे प्लेट में बिल्कुल सामने सजा रखा हो, बिरयानी के पैकेटक्स से आती खूशबू का भी यही हाल था....
मतलब यूं समझिए की उस लाज़वाब और taste खाने की सिर्फ खूशबू से ही मैं दिनभर की अपनी थकान और ट्रैफिक में फंसे रहने से जो परेशानी हुई थी एक पल में भूल गई, याद रहा तो सिर्फ मटन कोरमा,चिकन बिरयानी और जल्द से जल्द घर पहुंचने की बात वो भी सिर्फ इसलिए की घर पहुंचते ही पैकेट की खूशबू स्वाद बन मुंह में जाएगा और मेरे दिल,दिमाग,फेफड़ों के साथ साथ मुंह को भी तृप्ति मिले... DND cross करते ही ट्रैफिक की problem खत्म और नोएडा एक्सप्रैस पर आते ही मानों गाड़ी और ड्राईवर दोनों में किसी ने एक दम से Red Bull energy drink डाल दिया हो ,तेज और सर्पट दौड़ती गाड़ी की रफ्तार की वजह से हम घर पहुंचे...घर में आते ही फटाफट पतिदेव ने पैकेट खोला और माइक्रोवेव में लज़ीज़दार खाना गर्म करने को रखा दिया और इधर मैं फ्रैश-एन-अप होने के लिए washroom में चली गई, चली तो कई मगर पैकेट की खूशबू बार बार बचपन से लेकर अबतक काके-दा-ढ़ाबा में ना जा पाना और उसका ज़ायकेदार खाना ना खा पाने की ललक और बढ़ा रही थी...डाइनिंग टेबल पर एक एक सर्विंग डिश में मटन कोरमा सजा पड़ा था तो दूसरे सर्विंग डिश सजी हुई थी चिकन बिरयानी से, अपनी तो आंखें बस इन्ही दो डिशों पर जा कर अटक गईं तो बाकी सजा डाइनिंग टेबल पर कोई ध्यान ही नहीं गया इसलिए और डिशिज़ का नाम इस पोस्ट पर लिख नहीं पा रही हूं, anyway चलिए अब आगे की दास्ता-ए-डिश बयां करती हूं जिसे पढ़कर आप यकीनन मेरे हालात या फिर कहूं भूखे पेट की कहानी पर एक मज़दार तरस खाएंगे, अरे भई मज़ेदार तरस की मतलब है की आपको मेरी भूख पर हंसी भी आएगी... तो हुआ कुछ यूं की खाना प्लेट में सजाया और मुंह में ज़ायकेदार,बेहद हसीन और स्वादिस्ट सपनों को देखते हुए पहली बाईट मुंह में ली..जुंबा अचानक से रुकी, आंखों ने एक अजीब सा रिएक्शन दिया और दिमाग के इंजन ने तो ब्रेक लिया और बिना रुके मैने अपने मिस्टर जी से सवाल किया ये..ये क्या है...
बगल में बैठे मिस्टर जी बोले क्या हुआ, मैने कहा जो हुआ वो बाद में बदाउंगी पहले ये बताओं की ये है क्या, मिस्टर जी बोले क्या है का क्या मतलब कोरमा है,बियानी है,रुमाली रोटी है रायता है और क्या है..कोरमे का स्वाद ऐसा कबसे हो गया,मतलब अजीब सा स्वाद और वो भी मीठा...मिस्टर जी चुप रहे और कुछ नहीं बोले..मैंने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा की मुझे तो लग रहा है की आप काके-दा-ढ़ाबे से कोरमे की जगह गुजराती थाली पैक करवा कर लाए हैं... क्या ये ही है काके-दे-ढ़ाबे का जायकेदार स्वाद... इसी स्वाद की तारीफ बचपन से सुनती आ रही हूं और इसी स्वादिस्ट और अजीब खाने की खूशबू भी नाक से होते हुए मुंह मे जाती रही और मेरा मन ललचाता रहा...उस वक्त तो मानो रास्ते भर देखते हुए सपनों के साथ किसी ने बहुत बड़ा धोखा कर उसे तोड़ दिया हो...दिमागा का इंजन तो पहले ही बंद हो चुका था अबतक मुंह के पानी ने भी अपनी जगह छोड़ दी और वापस पेट में जाकर भूखको खत्म कर चुका है, समझ नहीं आ रहा था की मेरी जुंबा के स्वाद और मुंह में आने पानी के सपनों के साथ किसने धोखा किया है उस ढ़ाबे वाले ने या उन तमाम लोगों ने जिन्होनें बचपन से लेकर उम्र के इस पड़ाव तक मुझे ये कह कहकर हर बार ऑक्ववर्ड फील करवाया की मानों मैंने ज़िंदगी में कुछ हासिल ही नहीं किया है क्योंकी मैं जाने-माने मशहूर काक-दा-ढ़ाबे के लाजबाव स्वाद से वंचित रह गई हूं...दिमाग और जुंबा कुछ ना कुछ बड़बडाए जा रही थी..की तभी अचानक मेरे कानों को कुछ ऐसा सुनाई दिया जिसे सुनकर कान एक सेकेंड के लिए सुन और जुंबा शब्दहीन हो गई..बताती हूं बताती हूं जानती हूं मैं की अब तो आपभी मेरे उस पल और बात को जानने के लिए ओवरएक्साइटेड हो रहे होंगे और हो भी क्यों ना अब सपनों और स्वाद की इतनी सारी बाते सुनकर जो मज़ा आ रहा होगा उसमें उस एक पल ने ब्रेक जो लगा दिया होगा...तो चलिए बताती हूं बात थी की मेरे मिस्टर जी ने धीरे ने सिर अपनी प्लेट की तरफ झुकाते हुए तबी हुई जुंबा से कहा की वो दरसल एक छोटी सी मिस्टेक हो गई, मैं कहा क्या हुआ बोलो,तो जनाब धीरे बोल रहे हैं की दरसल खाने का पैकेट खोलते वक्त माफ कीजिएगा पूरी बात पढ़िए की मटन कोरमे और बिरयानी के साथ मिली ग्रैवी का पैकेट खोलते वक्त उन्हें दोनों में कोई ज्यादा फर्क दिखा नहीं और खाने का ज़ायका और बढ़ाने के लिए उन्होनें उन दोनों ग्रैवी को एक में मिक्स कर दिया और सर्विंग डिश में फाइन डाइनिंग टेबल पर सामने पेश कर दिया और उसी की वजह से स्वाद के साथ कुछ अजीब हो गया...अब आप सोच ही सकते हैं की उस वक्त मुझे कैसा लग रहा होगा, मेरे तन-मन में कैसी हलचल हो रही होगी...ठीक वैसी ही जैसे हर पति की गलतियों पर पत्नी के अंदर कुछ अजबो-गरीब गुस्सा या फिर कहें फीलिंग होती है,मैरे साथ भी ठीक वैसी ही गतिविधियां और ज्वालामुखी वाली तरंगे उठ रही थीं... लेकिन अब क्या किया जा सकता है गुस्से को दिल में ही खत्म करने के अलावा कोई और चारा भी तो नहीं था क्योंकी मिस्टर जी ने जो अंजाने में किया वो गलती तो मुझसे भी हो सकती थी...
एक तो अच्छे पति की तरफ वो फ्रैश हुए बिना मेरी एक्साइटमेंट और भूख दोनों का ख्याल रखते हुए वो सीधे किचन की तरफ गए ताकी मेरे वापस आने पर मुझे सजी सजाई प्लेट मिल सके और मैं उनके साथ बेरुखी से पेश आउ सो मैने हल्की सी मुस्कुराहट अपने होंठों पर सजाई और कहा कोई बात नहीं जानी it's ok jaani... कोई नहीं जो हुआ सो हुआ आपने कौन सा जानकर मेरे स्वादभरे रंग में बेस्वाद का भंग डाला..फिर क्या था फटाफट अपनी 2 मिनट वाली मसालेदार मैगी बनाई मिस्टर जी को भी खिलाई और खुद भी खाई..अब ये मत पूछिएगा की कैसी बनी थी क्योंकी मैगी जो स्कूल के टिफीन से लेकर कॉलेज के कैंटीन और उसके बाद ऑफिस से लेट आने वालों के लिए दुनिया की सबसे बेहतरीन डिश होती है और यहां तो मामला भूख का भी था तो जाहिर सी बात है स्वाद तो मेज़ेदार रही रहा होगा...end's well so all well ...मगर सोते सोते भी खुद पर सिर्फ एक ही मज़ेदार कहावत सटीक बैठी हुई थी...अरे भई वही तो मेरे इस पहली पोस्ट का टाइटल है...हाथ आया पर मुंह ना लगा...हा हा हा हा... आपके साथ भी कभी ना कभी ऐसा ज़रुर हुआ होगा...अरे स्वाद में बेस्वादी का भंग का नहीं पड़ाना बल्कि कुछ ऐसा जिसे पाने के सपने तो आपने कई बार देखे होंगे पर जब सामने आया तो या तो आप लेने लायक नहीं रहे होंगे या फिर चाहकर भी ले नहीं पाएं होंगे... हा हा हा हा हा...
सोमवार, 31 दिसंबर 2012
सोमवार, 17 दिसंबर 2012
इंसानी शक्ल, दिमाग में '' शैतान ''
मंगलवार, 4 दिसंबर 2012
गलती के लिए माफी
मंगलवार, 3 अप्रैल 2012
‘ क्योंकी हर एक फ्रैंड ज़रुरी होता है...'
'क्योंकी हर एक फ्रैंड ज़रुरी होता है...' जी हां बिल्कुल सही है हम सभी की ज़िंदगी में हर एक दोस्त की अलग- अलग अहमियत होती है और हर एक हमारे लिए ज़रुरी होता है । हम जब इस दुनिया में आते है उस वक्त हमें पहले से ही लगभग हर रिश्ता बना बनाया मिलता है बस कुछ रिश्ते ही ऐसे होते हैं जो इंसान बाद में वक्त के अनुरुप चुनता है और उनमें से ही एक रिश्ता है दोस्ती का....ये दोस्ती स्कूल से शुरु होती है...जब बचपन में Class में Homework ना करने पर Teacher हमें Punish करती थी तो हमारे हाथों पर Scale के पड़ने वाले निशान का दर्द First Bench पर बैठने वाले हमारे दोस्तों के हाथों में होता था । शाम को साइकिल चलाते वक्त गिरने पर सभी दोस्त घर पर मैरी मम्मी से झूठ बोलते की आंटी बस थोड़ी सी चोट आई है और वो भी रुचि की गलती से नहीं बल्कि वो एक आदमी स्कूटर से आ रहा था उसे ही दिखाई नहीं दिया, ये झूठ इस लिए था की कहीं अगर मम्मी को ये पता चला की गलती मेरी है तो शादत डांट के साथ साथ कल से साइकिल राइड भी बंद हो जाएगी...क्योंकी दोस्ती ही एक ऐसा रिश्ता है जो बिना किसी कॉम्पटीशन के डर से चला जाता है ।Exam में कम Marks आने पर घर में सभी Friends ये बोलते थे की अंकल कितना भी पढ़लो पता नहीं क्यूं ये टीचर्स ऑउट ऑफ सिलेबस QUESTION PAPER बनाते हैं.. इतना ही नहीं ये दोस्ती सिर्फ स्कूल की मस्ती तक ही सीमित नहीं रहती बल्कि कॉलेज में भी इसके कई प्यारे और रंगीन रंग दिखते हैं । बेशक मेरे और मेरी फ्रैंड्स के FIRST CUT OF LIST वाले MARKS आए हों लेकिन हमेने एडमिश्न उसी डफर कॉलेज में लिया जिसमें हमारे दोस्त का एडमिशन हुआ है और हम ने अपने अपने घर पर कहा की आपको नहीं पता डैडी इस कॉलेज का नया (फलां) Course सबसे अच्छा है... ग्रुप स्टडी से लेकर नाइट आउट और Pyjama Party से लेकर कॉलेज की खाली क्लास रुम में जाकर दरवाजा बंदकर पहली बार सिगरेट को डर डर कर हाथ लगाना...सबकुछ दोस्तों के साथ कितना याद आता है... क्साल मेट की Birthday Party में जाकर सभी का एक साथ हल्ला गुल्ला करना और तो और नाइट स्टे करने के नाम पर पहली बार ऑरेंज जूस में थोड़ी वोटका मिलाकर पीना और अपने अपने Boy friend की बाते हों और New Crush के बारे में बताना हो...मानो अब सपना सा लगता है...
वैसे दोस्तों के हसीन किस्सों की फेहरिस्त सिर्फ इतनी ही नहीं है एक किस्सा इतना
दिलचस्प है की आपको बताते वक्त भी... मुझे हंसी आ रही है, दरसल...
एक दिन मैं घर देर से पहुंची तो मम्मी ने पहुंचा - ‘’ कहां थी
मैंने कहा – ‘’ फ्रैंड के घर ’’ ।
मम्मी ने मेरे ही सामने मेरे 10 दोस्तों को फोन कर दिया, 4 ने कहा – ‘’ हां आंटी यहीं पर थी ’’ , 2 ने कहा – ‘’अभी just निकली है
3 ने कहा – ‘’ यहीं है आंटी पढ़ रही है फोन दूं क्या ??? ‘’ , और तो और
एक दोस्त ने तो हद ही कर दी बोली – ‘’ हां मम्मी बोलिए क्या हुआ है,
बस घर पहुंचने वाली हूं ‘’
बेशक ये दोस्ती की सबसे ख़तरनाक मिसाल थी लेकिन यकीनन ये सब कुछ सिर्फ और सिर्फ दोस्तों और दोस्ती के बीच में ही हो सकता है , कहीं और नहीं । जब भी Office में बॉस से कुछ खिट-पिट हो तो दोस्त ही ऐसे होते हैं जो कहते हैं की छोड़ ना यार टेंशन लेने का नहीं देने का...चल कैंटीन में चलकर चाय पीते हैं और अगर जाने के बाद Canteen बंद हो तो सड़क की चाय से लेकर CCD की कैपिचिनो सबकुछ छान लेना उन लम्हों को चंद अलफाज़ो में फयान कर पाना मेरे लिए मुमकिन नहीं है । जब मंज़ील पाना मुश्किल लगे तो दोस्तों के साथ छत पर जाकर बारिश में भीग कर मस्ती करने में ऐसा ऐहसास होता है की किस चीज़ के लिए हम भाग रहे हैं, कहीं पर कुछ नहीं है अगर कुछ है तो बस दोस्तों के साथ बिताए जाने वाले यही लम्हें जिन्हें हम आज की की Date में काम के चक्कर भूल गए हैं । वैसे हर एक लम्हे की अलग जगह होती है और अहमियत भी....अगर आज ये टेंशन और काम में बिज़ी होने की वजह नहीं होती तो शायद दोस्तों और उनके साथ बिताए वो हसीन पलों की अहमियत भी पता नहीं चलती क्यूंकी इंसान के पास जो भी चीज़ होती है उसकी नज़र में उसकी अहमियत कम ही होती है ।
आज भी जब हम सभी दोस्त मिलते हैं तो हर रोज़ की तरह ये नहीं पूछते की Hello, Hi , How are you??? बल्कि बोलते हैं ओए कैसा है साले / कैसी है, और बता कुछ नया रायता ??? क्यूंकी यही एक मात्र ऐसा रिश्ता है जो ना किसी दिखावे पर टिकता है और ना ही मतलब पर ... तभी तो टेलीकॉम कम्पनी ने भी इसी रिश्ते का इमोश्ल सहारा लेकर हमारी और आपकी जेल ढ़ीली करने का प्रोजेक्ट बनाया था जिसमें वो कामियब भी रहे.... भई इसी लिए को कहते हैं की - चाय के लिए जैसे टोस्ट होता है,
वैसे हर एक फ्रैंड ज़रुरी होता है ।
Ruchi Rai
बुधवार, 7 मार्च 2012
खत्म हुआ यू.पी का महाभारत
उत्तर प्रदेश विधान सभा में ना तो शाही सवारी हाथी तेज़ चल पाई और ना ही
अमूल बेबी कहे जाने वाले राहुल गांधी का जादू...तरक्की हुई तो पर्यावरण
को प्रदूषण से बचाने वाले चुनाव चिन्ह साइकिल की... गांव की पतली और धूलभरी सड़को से लेकर शहरों की चोड़ी सड़को पर चलने वाली साइकिल ने पूरे बहुमत में आकर सभी राजनैतिक दल की नींदें उड़ा दी...साथ ही ये भी बता दिया की अगर जनता अपने पर आए तो किसी को भी सत्ता में लाकर उसके सिर जीत का ताज पहना सकती है , उसकी मर्जी में किसी और की सहायता लेने की ज़रुरत नहीं और ये भी बता दिया की लोगों के झूठे भ्रम और प्रदेश को अपने बाप की बपोती समझने का अधिकार किसी भी सरकार को नहीं है । जनता के समीकरण के आगे सभी दलों के समीकरण फेल हो जाते हैं ।